इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा करने लगें

इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा करने लगें,तब यह प्रसंशा अर्जुन को यह अच्छा नहीं लगा

एक बार  इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्णचन्द्र कर्ण की दानशीलता की  प्रशंसा करने लगें। तब यह प्रसंशा अर्जुन को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा ह्रषीकेश !धर्मराज की दानशीलता में कहा त्रुटि है जो उनकी उपस्थिति में आप कर्ण की  प्रशंसा कर रहे हैं ? इस तथ्य को तुम स्वंय समय पर समझ लोगे,यह कहकर उस समय श्रीकृष्ण ने बात को टाल  दिया.

इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा करने लगें,तब यह प्रसंशा अर्जुन को यह अच्छा नहीं लगा
कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा

कुछ समय पश्चात अर्जुन को साथ लेकर  श्यामसुन्दर ब्राह्मण  के वेश में पाण्डवों के राजसदन में आये और बोले ‘राजन!मैं अपने हाथ से बना भोजन  करता हू।भोजन  मैं केवल  चन्दन की लकड़ी से बनाता हू. और वह काष्ठ तनिक  भी भीगा नहीं होना चाहिए। ‘ उस समय खूब  वर्षा हो रही थी।युधिष्ठिर ने राजभवन में पता लगा लिया,किन्तु सूखा चन्दन-काष्ट कहीं मिला नहीं।सेवक नगर में गये,किन्तु संयोग  ऐसा कि जिसके पास भी चंदन मिला,सब भीगा हुआ मिला।धर्मराजको  बड़ा दुःख हुआ, किन्तु उपाय  कुछ  भी न था ।

उसी वेश में वहाँ  से सीधे श्रीकृष्ण और अर्जुन  कर्ण  की राजधानी पहुंचे और वही बात  कर्ण  से कही।कर्ण के राजसदन में भी सुखा चन्दन नही था, और नगर में भी नहीं मिला। लेकिन कर्ण ने सेवकों से नगर में चन्दन न मिलने की बात  सुनते ही धनुष चढ़ाया।

राजसदन के मूलवान  कलंकित द्वार  चन्दन के थे। अनेक  पलंग  चन्दन के पायेके थे ।कई दूसरे उपकरण चन्दन के बने थे। क्षणभर में बाणों सेकर्ण ने उन सबको चीरकर  एकत्र करवा दिया और बोला ‘भगवान ! आप  भोजन  बनायें।’

वह आतिथ्य  प्रेम के भूखे गोपाल  कैसे छोड़ देते। वहाँ से तृप्त  होकर  श्रीकृष्ण जब बाहर आ गये,तब अर्जुन से बोले ‘पार्थ ! तुम्हारे राजसदन में भी द्वारादि चन्दन के ही हैं। उन्हें देने में पाण्डव कृपण भी नहीं हैं । किन्तु दान-धर्म में जिसके प्राण बसते हैं,उसी को समय पर स्मरण आता है कि पदार्थ कहाँ से कैसे लेकर दिया जाय। ‘

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