अभी सवेरा दूर बहुत – हिंदी कविता– Hindi कविता
अभी सवेरा दूर बहुत– हिंदी कविता
ठंड से ठिठुरते पलों में जब
कोई कहे मुबारक हो नया साल
दीवार में चिने गये सिंहशावकों को जैसे
फिर से कर रहा हलाल
कहानियां तक न रहीं किताबों में
कृतघ्नता की जली मशाल
आग का दरिया जब तैरकर निकले
दलाली मांगते सत्ता के दलाल
कंपकंपाती सर्दी में सुनता हूं जब
नववर्ष होवे शुभ तुम्हारा
कालापानी की कंदराएं लजाती हैं
दूर-दूर दासता विस्तारा
करतार खुदीराम उपद्रवी ठहरे
ऊधमसिंह को कहते हत्यारा
नपुंसक पाखंडी चाचा बापू हो गये
दानवों म्लेच्छों संग निभता भाईचारा
अभी सवेरा दूर बहुत है
भारत भटक रहा अंधियारों में
अजर दासता की बत्तियां जगमग
मंदिरों और गुरुद्वारों में
अभी मनों पर मैल जमी है
तन धोते नदिया ताल तलैया में
पार उतरेगा कौन यहां
छेद हुआ है नैय्या में
उलझाया है जनमन अभी
झूठे खेल तमाशे मेलों में
हर पल बिकने को आतुर
सतीत्व कहां है रखेलों में
रंग और नाम बदला है केवल
ढब वही ह्यूम रोज़ के चेलों में
जब जगे शिवा प्रताप के वंशज
सब होंगे कूड़े के ठेलों में
तुम चाहते मेरा शुभ
मैं ढूंढता शुभ की परिभाषा
तुम्हारे हाथों में पुष्पगुच्छ
मेरे मस्तक मेरी गाथा
अपने पराये का भाव नहीं
वंदन नमन प्रकृतिमाता
असत्य अधर्म के वणिकों संग
मेरा न कभी कोई नाता
लेखनीकार हूं मैं सरकार नहीं
गुनता हूं मैं मुझको नहीं कोई चुनता
धरती की पीड़ा का प्रतिबिम्ब
प्रणव के अणु की मैं लघुता
कपट कूढ़ की छाती धंसा तीर
चिरयुवा सदा रहूं चुभता
अपने घर का मैं दीपक
तमसनिवारण तक मेरी प्रभुता
दासता का निकृष्टतम रूप है मानसिक दासता। कविकी मान्यता है कि आज देश उसी में जकड़ा है। और, कवि अपने सामाजिक दायित्व के प्रति पूर्णतया समर्पित है।
पाठक की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है।
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