लोकराज की लुटती लाज – कविता (Hindi kavita)
भीड़ जब नहीं टली
तर्क की नहीं चली
शल्य हठी गली गली
दुर्युक्तियों के खेल में
तमस उमस के मेल में
सच हुआ नहीं बली
भारती गई छली
भीड़ जब नहीं टली . . .
कसमसा रहा समाज
पीर भरी देहछाज
कोढ़ में छिड़ी है खाज
गलियों में शोर है
कौन किसकी ओर है
मूक बधिर लोकराज
उसीकी लुट रही है लाज
कसमसा रहा समाज . . .
बिका हुआ सामान वहां
मुंड मुंड प्रधान वहां
नि:शुल्क सब दुकान वहां
छत्र चंवर जो हीन हुए
इक कौड़ी के तीन हुए
बीत चुके राजान वहां
और कुछ किसान वहां
बिका हुआ सामान वहां . . .
पथ पथिक नए नए
मीत प्रीत खो गए
अनजाने हो गए
चुभता हिरदे में शूल
छांव को तरसे बबूल
आंखों को धो गए
तुम जो दिन में सो गए
पथ पथिक नए नए . . .
विजयश्री तुम्हें वरे
भूत हों परे परे
अरि रहें सदा डरे
लौट तो जाओगे तुम
प्रश्न छोड़ जाओगे तुम
शुभ कर्मों से नहीं टरे
कौन हित किसका करे
विजयश्री तुम्हें वरे . . .
आज कहें इक सत्यकथा
तथा प्रजा राजा यथा
बीती बिसरी हुई प्रथा
होंगे हम राजा जिस दिन
लौटाएंगे सब गिन गिन
होगा अपना सूरज अपना माथा
तू न बिका जो मैं न बिका
तू न बिका जो मैं न बिका . . . !
कृषि सुधार(?) कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के संबंध में आपने कोई कविता-गीत पढ़ा-सुना क्या?
मेरी यह कविता इसी विषय पर है।
पाठकगण, लेखकों की रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया न केवल हमें उत्साहित करती है अपितु, श्रेष्ठ लेखन आप तक पहुंचाने का यह प्रेरणास्रोत भी है।
कविता ‘लोकराज की लुटती लाज‘ पर आपके विचार आमंत्रित हैं।
धन्यवाद !
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