
माँ गंगा से - हिंदी कविता | Hindi कविता
'माँ गंगा से' पिछले वर्ष (२०१९) "गंगा महासभा" द्वारा प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर आयोजित 'काव्य गंगा' के अवसर पर मेरी विनम्र प्रस्तुति - वेद प्रकाश लाम्बा

माँ गंगा से -हिंदी कविता
छलकती हुई बूंदों को पलकों से चुनने
शब्दों की बगिया से अर्थों को गुनने
लहरों से तेरी लोरी को सुनने
ताप मन और तन का बुझाने को आया
लुटा कैसे-कैसे बताने को आया
मन-पंछी रोते-रोते सो गया है
मां वितस्ता से मेरा विछोह हो गया है . . . . .
गाली हुई आज खेती-किसानी
ज्योति जलाना बनी नादानी
मर ही गया मां आंखों का पानी
मरने को जन्मे हैं गइया के बेटे
बेटों की पीड़ा को धरती समेटे
आंखों का अंजन दृष्टि धो गया है
विज्ञान टपकता लहू हो गया है . . . . .
खिड़कियों से क्यूं हैं ऊंचे झरोखे
दरवाज़े आने-जाने के धोखे
बंटने-कटने से निखरेंगे रंग चोखे
विषैले प्रश्नों की गले में माला
बरसता है मेंह ज्यों धधकती ज्वाला
लगता है जैसे मनु रो गया है
आंगन गंधीला छत हो गया है . . . . .
देहली की धूलि माथे लगाने
आया हूं रूठे सितारे मनाने
सगर के बेटों को फिर से जिलाने
इस युग फिर मां अचम्भा हुआ है
सच की राहों में फैला धुआं है
हिरदे में पीर कोई बो गया है
लोकराज के यज्ञ का अश्व खो गया है . . . . .
सांवरे हरे दिखते थे राधा के देखे
गालों की लाली थी मोहना के देखे
फूलों की रंगत कर्मों के लेखे
दुर्दिन की धूप कीकर की छाया
कष्टों का ककहरा कहने मैं आया
बगल में बगूला खड़ा हो गया है
हरा रंग आज प्राणहरा हो गया है . . . . .
कठुआ में लुटती केरल में बिकती
मुंबई की बांहों में गिरती-फिसलती
भंवर में भटकने को भंवरी मचलती
तंदूर भूखे ने शील को खाया
नैना जेसिका को घेर के लाया
कानून कालिख सब धो गया है
व्यभिचार-वन में भारत खो गया है . . . . .
धनपति जगत के दीन हुए हैं
श्रीमंत आज श्रीहीन हुए हैं
बगुले तपस्या में लीन हुए हैं
ऊंचे सिंहासन बौने विराजे
सत्य की जय बस कहने को साजे
शासन बिस्तुइया की दुम हो गया है
ऋषिकुल भिक्षुक नया हो गया है . . . . .
शंकर से कहना यह जगने की वेला
अपने-से कांटों के तजने की वेला
समरभूमि में अब कवि अकेला
कहना कि आएं शिवा संग लाएं
बिखरी जटाओं का जूड़ा बनाएं
लगे त्रिवेणी-संगम खरा हो गया है
अमृत-कलश फिर भरा हो गया है . . . . . !
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