
मणियां - हिंदी कविता

मन विकल उदास बहुत परों के बिना
स्वप्नपरिंदे उल्टे लटके घरों के बिना
जनमते हैं मरने को गईया के पूत आज
कैसी होगी कल धरा हलधरों के बिना
पुलों के ऊपर पुल पुलों की भूलभुलैया
जीना नहीं जीना यहां करों के बिना
मल्ल धनुर्धर ज्ञानी अज्ञानी आये गये
सुपथ गरल सा लगे सहचरों के बिना
भारत के पांव में कसी जातिधर्म बेड़ियां
कुंठित खंडित मेधा अवसरों के बिना
कल्याणहित पिले पड़े पंच सरपंच सभी
मणियां दमकेंगी निश्चित विषधरों के बिना
सिसक रहा वाद्यवृंद कैसा यह राग है
हंसता कोकिल पुजता कागा सुरों के बिना
हे अयोध्या के राजा भेजो तो हनुमंत को
मनमलेच्छ माने नहीं वृक्षों पत्थरों के बिना
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कवि - वेदप्रकाश लाम्बा
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